मघ्स्थता एक ऐसी प्रणाली है जिसमें एक निरपेक्ष मध्यस्थ वादी और प्रतिवादी को अपने झगडे या मामले आपसी समझ व सम्मति से सुलझाने में सहायता करता है।
यह प्रक्रिया गोपनीय और ऐच्छिक तो है ही, इसमें भागेदारी करने का भी मौका मिलता है। मामले से जुड़े सभी पक्षों को अपनी बात कहने का और आपसी विवाद के समाधान तैयार करने का अवसर मिलता है । यही कारण है कि मध्यस्थता एक मिलीजुली प्रक्रिया है - इसमें झगडा समाप्त करने की वादियों की अपनी इच्छा और उन्हें समाधान तक ले जाने का मध्यस्थ का कोशल, दोनों शामिल हैं ।

यह विवादों को हल करने का एक अच्छा तरीका है, विशेष रूप से उन संबंधों को शामिल करना जो कि मुकदमेबाजी प्रक्रिया के माध्यम से आसानी से हल नहीं होते हैं, दोनों पक्षों के आपसी संतुष्टि के लिए। ये संबंध व्यक्तिगत, वाणिज्यिक, संविदात्मक या सामाजिक हो सकते हैं।

जी हाँ । अक्सर आपसी वैर और द्वेष अविश्वास और अनबन पैदा कर देते हैं। लेकिन जब मध्यस्थता के दौरान सभी पक्ष आमने - सामने बैठकर बातचीत करते हैं तो मन की गांठे खुलने लगती हैं। चूंकि मध्यस्थता औपचारिक नियमों में बंधी हुई प्रक्रिया नहीं है, सभी पक्ष अपने दिल की बात खुल कर कह सकते हैँ। ये बातें आधिकारिक व औपचारिक सीमाओं से मुक्त होती हैं। इसलिए एक लिखित समझौता भविष्य में होने वाले मनमुटाव से सभी पक्षों को बचाने और झगडे़ को जड़ से मिटाने का उत्तम साधन है ।

  • मध्यस्थता से समस्या और उसका समाधान, दोनों वादी के हाथ में होते हैं ।
  • कानून इसे मानता है और न्यायलय इसका प्रोत्साहन व समर्थन करते हैं ।
  • इस विकल्प का चुनाव ऐच्छिक है और हल न मिलने पर इसे स्वेच्छा से छोडा भी जा सकता है ।
  • यह प्रक्रिया गोपनीय व सरल है, साथ ही माहौल अनौपचारिक रहता है। इस प्रक्रिया में मुकद्दमे की आवश्यकता और उससे जुड़े लोगों की सुविधानुसार फेरबदल किया जा सकता है । मध्यस्थता का चुनाव मुकद्दमे के दौरान कभी भी किया जा सकता है - न्यायिक प्रक्रिया से पहले, मुकद्दमे के दौरान या अपील दायर करते वक्त। मुद्दे के पहलुओं को प्रक्रिया के दौरान बढाया - घटाया जा सकता है।
  • यह प्रक्रिया वादियों को उनके पक्ष की ताकत व कमजोरी दिखाती है जिससे समस्या का सही समाधान मिल सकता है ।
  • यह प्रणाली सब पक्षों के दूरगामी हित का सोचती है और समझौते की कई संभावनाएँ दिखाती है। इस से आपसी मतभेदों के समाधान का पूरा - पूरा मौका मिलता है।
  • यह प्रक्रिया पारस्परिक संपर्क व बातचीत को बेहतर बनाने का अवसर देती है, जो किसी भी झगडे़ को समाप्त करने के लिए ज़रूरी है ।
  • इससे कीमती समय और भाग-दौड़, दोनों बचते हैं । मध्यस्थता की प्रक्रिया में मुकद्दमे और अपील आदि के मुकाबले कहीं कम समय लगता है। न्यायालय में जो केस कई वर्ष खिंचता रहता ह, वही मध्यस्थता की प्रक्रिया शुरू होते ही कुछ दिनों, हफ्तों या महीनों में निपट जाता है ।
  • साथ ही, अक्सर लंबी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया में लगने वाला पैसा बचता है । झगडे सुलझाने के लिए बाकी साधनों की अपेक्षा मध्यस्थता में ख़र्च भी कम होता है। यदि मामला मध्यस्थता के रास्ते निपट जाता है तो वादी द्वारा जमा जिया गया कोर्ट शुल्क उसे वापिस कर दिया जाता है ।
  • इससे आपके रिश्ते फिर से जुड़ते हैं - इसका उद्देश्य भविष्य को संवारना है, बीते कल को कुरेदना नहीं ।
  • समझोते पर हस्ताक्षर करके समी यक्ष अपेक्षा से अधिक लाभ पा सकते हैं।
  • प्रक्रिया के अंत में विरोध मित्रता में बदल जाता है ।
  • जब इस प्रकार एक मसला सुलझ जाता है तो उससे जुडे बाकी के और झगडे़ भी समाप्त हो जाते हैं ।
  • इस प्रक्रिया में आगे अपील करने की गुंजाइश नहीं है । इससे न्यायतंत्र का वक्त और पैसा भी बचते हैं।

न्यायिक प्रक्रिया में मुकद्दमे का निर्णय न्यायाधीश करता है। वादियों को वह निर्णय मानना भी पड़ता है हालांकि उनके पास अपील का रास्ता खुला रहता है। विवाचन की प्रक्रिया भी अधिनिर्णय पर समाप्त हो जाती है हालांकि इस अधिनिर्णय को भी चुनौती दी जा सकती है । दूसरी ओर, मध्यस्थता की प्रक्रिया से मध्यस्थ बदियों को अपने झगड़े का सर्वमान्य समाधान दूँढ़ने में सहायता करता है। यह समाधान न्यायलय का नहीं उनका खुद का चुना हुआ होता है । लेकिन अगर समझौता न्यायालय-संबद्ध मध्यस्थता द्वारा किया जाता है, तो न्यायालय इस समझौते का अनुमोदन न्यायिक आदेश द्वारा करता है। फिलहाल, भारत में दोनों शब्द, ‘मध्यस्थता‘ और ‘समाधान‘, एक दूसरे के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होते हैं ।

नहीं । कुछ मसलों में न्यायिक प्रक्रिया और उद्घोषणा आवश्यक होते हैं, जबकि कुछ और मसले मध्यस्थता के मैत्रीपूर्ण रास्ते से ही निपट जाते हैं । हम कहेंगे कि न्यायिक प्रक्रिया और मध्यस्थता एक दूसरे के पूरक हैं ।

एक वादी दूसरे को मध्यस्थता चुनने की राय दे सकता है । समझौते में ही मध्यस्थता की शर्त रखी जा सकती है या फिर वादी किसी संस्थान या केंद्र के ज़रिए मध्यस्थता का रास्ता अपना सकते हैं । यदि दिल्ली उच्च न्यायालय को लगता है कि मध्यस्थता की प्रक्रिया किसी भी विचाराधीन मुकद्दमे के लिए उपयुक्त है तो न्यायालय स्वयं वादियों की सहमती से इस प्रक्रिया को शुरु करने का निर्देश दे सकता है । दिल्ली उच्च न्यायलय मध्यस्थता केंद्र न्यायिक प्रक्रिया शुरु होने के पूर्व विवाद को स्वीकार करता है ।

वादी आपसी सहमती से अपना मध्यस्थ खुद चुन सकते हैं । यदि मध्यस्थता की प्रक्रिया दिल्ली उच्च न्यायालय जैसे किसी भी और न्यायालय द्वारा निर्देशित होती है तो न्यायालय स्वयं मध्यस्थ नियुक्त करता है । या फिर, न्यायिक निदेश पर, दिल्ली उच्च न्यायालय मध्यस्थता केन्द्र भी अपने प्रशिक्षित और अनुभवी मध्यस्थ सदस्यों में से किसी को भी नियुक्त कर सकता है । ये लोग दिल्ली उच्च न्यायलय बार संघ के सदस्य होते हैं ।

मामले या झगडे़ से जुड़े सभी वादी मध्यस्थता में शामिल हो सकते हैं । यदि वादी कोई फ़र्म या कंपनी है तो उसका प्रतिनिधित्व किसी ऐसे अफसर को करना चाहिए जिसे मामले में आखि़री निर्णय लेने का अधिकार हो । वादियों को अपनेे - अपनेे वकील साथ लाने की राय दी जाती है ।

नहीं । यह प्रक्रिया सौ फीसदी ऐच्छिक है । इसे शरू करने से पहले मामले से जुडे सभी पक्षों की सहमती होना आवश्यक है। यदि किसी पक्ष को लगता है कि इस प्रक्रिया से उसे कोई लाभ नहीं हो रहा तो किसी भी प्रतिकूल परिणाम की चिंता किए बिना, वह कभी भी मध्यख्याता छोड़ कर जा अता है।

नहीं । मध्यस्थता वादियों को आपसी झगडे मैत्रीपूर्ण ढंग से निपटाने का मौका देती है। यह सेवा न्यायालय में मुकद्दमा दायर करने से पहले भी उपलब्ध है । न्यायालय में विचाराधीन मुकद्दमे के दौरान भी मध्यस्थता का चुनाव किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के विफल होने पर भी न्यायालय के समक्ष वादियों के अधिकार पर कोई आंच नहीं आती । लेकिन समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्हें इस करार को मानना पाता है ।

  • मध्यस्थता सेवाओं का लाभ उठाने के लिए वादी स्वयं या न्यायलय के माध्यम से समाधान केन्द्र के पास जा स्कते हंै।
  • वादियों को दिल्ली उच्व न्यायालय द्वारा प्रदान किया गया एक स्वीकृति पत्र भरना पड़ता है । यह फार्म इस बात का प्रमाण है कि वादियों ने मध्यस्थता का चुनाव अपनी मर्जी से लिया है।
  • अगर मध्यस्थ मामले से किसी भी तरह जुड़ा है या किसी भी पक्ष को उसके पक्षपात करने की आशंका होती है, तो यह मध्यस्थता करने से इंकार कर देता है ।
  • वैसे तो मध्यस्थ वादियों और उनके वकीलों से एक साथ या अलग-अलग भी मिल सकता है, लेकिन वादी को प्रोत्साहित किया जाता है कि वह अपने वकील के साथ ही मध्यस्थ के समक्ष प्रस्तुत हो ।
  • मध्यस्थ ही इस प्रक्रिया का कर्ता-धर्ता है । प्रक्रिया की समाप्ति तक सभी पक्षों द्वारा उसी का निर्णय अंतिम माना जाना चाहिए ।
  • बातचीत के सबसे पहले दौर में मध्यस्थ और सभी वादी अपना- अपना शुरुआती बयान देते हैं । यहाँ मध्यस्थ वादियों की मदद करता है जिससे वे मामले के कुछ मूलभूत तथ्य स्थापित कर सकें । फिर बारी आती है मामले के अलग - अलग पहलू समझने की । इसके बाद मध्यस्थ वादियों का ध्यान भविष्य में होने वाले उनके नफ़े-नुकसान की ओर आकर्षित करता है।
  • वादी मध्यस्थ को अपने-अपने पक्ष का संक्षिप्त विवरण दे सकते हैं और उसकी पुष्टि के लिए काग़ज़ात भी पेश कर सकते हैं । विवरण और काग़ज़ात की फोटोकाॅपियाँ विपक्ष को दी जा सकती हैं।
  • मध्यस्थ सब पक्षों की परस्पर बातचीत को बेहतर करने का प्रयास भी करता है । इसके लिए वह सभी पक्षों और उनके वकीलों की कुछ और साझा बैठकें बुला सकता है, हर वादी और उसके वकील को फिर से अलग - अलग मिल सकता है या दोनों विकल्प एक साथ इस्तेमाल कर सकता है। 
  • इसके बाद मध्यस्थ सभी वादियों को समाधान के सबसे उचित विकल्प समझने में मदद करता है । वह उन्हें स्वतंत्रता देता है की वे कुछ और नए विकल्प भी तैयार कर सकें । साथ ही, वह उनके सुझावों को दुरुस्त करता है जिससे एक सर्वमान्य समझौता तैयार हो सके । यह सम्मति एक लिखित समझौते का रूप लेती है जिस पर वादी, उनके वकील और मध्यस्थ हस्ताक्षर करते हैं ।
  • यदि कोई मामला न्यायालय-निर्देशित है तो यह समझौता न्यायालय में दायर किया जाएगा जिससे आगे की कार्यवाही पर न्यायालय अपने निर्देश दे सके । न्यायालय एक ऐसा आदेश जारी करता है जो मोटे तौर पर इस समझौते में सब पक्षों की स्वीकृति को स्थापित करता है । यदि यह समझौता न्यायिक प्रक्रिया से पहले हो जाता है, तब भी वह मान्य और वैध है।
  • अगर अन्य कारणों से वादी किसी एक नतीजे पर नहीं पहुँचते या कोई पक्ष मध्यस्थता का रास्ता छोड़ना चाहता है, तो यह प्रक्रिया यहीं समाप्त कर दी जाती है । मध्यस्थ न्यायालय को प्रक्रिया के सफल न होने की रिपोर्ट भेजता है । चूंकि यह प्रक्रिया गोपनीय है, रिपोर्ट में असफलता का न तो कोई कारण दर्ज होता है और न ही किसी को दोषी ठहराया जाता है। ऐसी रिपोर्ट न्यायालय के लिए कोई मूर्वधारपणा नहीं बनाती और न ही कंस के गुण-देषों पर कोई असर डालती है।

बिल्कुल। गोपनीयता इस प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है । वादी निःसंकोच होकर मध्यस्थ को कोई भी जानकारी दे सकते हैं । इस जानकारी को मध्यस्थ तब तक गोपनीय रखता है जब तक वादी खुद विपक्ष के साथ उसे बांटना न चाहे । यह जानकारी न्यायालय के अभिलेख में दर्ज नहीं की जाती। इस कार्यवाही से जुड़ी सब बातें सुरक्षित रखी जाती हैं क्योंकि वादी का अपने मध्यस्थ पर विश्वास ही इस प्रक्रिया की धुरी है । मध्यस्थता के दौरान प्रस्तुत किये गये विचार, सुझाव या स्वीकृति, या दिये गए बयान, सबूत अथवा प्रस्ताव किसी भी कानूनी कार्यवाही में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते 

नहीं । विवाचक या निर्णायक की तरह, मध्यस्थ किसी भी मामले में अपनी राय या निर्णय नहीं देता। वह किसी भी पक्ष पर समझौते की कोई शर्त नहीं थोपता, और न ही किसी का पक्ष ही लेता है । यदि समझौता नहीं होता तो यह न्यायालय को केवल इस बात कीं सूचना देता है, उसके न होने का कारण नहीं बताता ।

वैसे तो मध्यस्थता की अवधि मामले पर ही निर्भर करती है, फिर भी अधिकतर मामले तीन से पांच बैठकों में निपट जाते हैं। कुछ को इससे कम समय लगता है तो कुछ और मामले ज्यादा वक्त लेते हैं । लेकिन किसी भी स्थिति में यह प्रक्रिया 90 दिन से ज्यादा नहीं चल सकती । दिल्ली उच्च न्यायालय की मध्यस्थता नियमावलि मे यही सीमा निश्चित की गई है । कुछ विशेष मामलों मे न्यायालय 30 दिन का अतिरिक्त समय भी देता है । कभी-कभी मध्यस्थता का दुरुपयोग भी क्रिया जाता है। वादियों को सचेत रहना चाहिए कि वे इस प्रक्रिया का इस्तेमाल मामले को बेवजह लंबा खींचने के लिए न करें। इस प्रक्रिया का उदेश्य मामले को निपटाना है न कि इसका गलत इस्तेमाल करके प्रतिवादी के बारे में जानकारी हासिल करना ।

जी हाँ । सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 और आदेश 10-1क, 1ग, 1घ, और 32-क द्वारा न्यायलय के लिए अनिवार्य है कि वह निर्णयादेश के पहले सुलह द्वारा मसले का समाधान दूँढ़ने की पूरी-पूरी इजाजत दे । आर्विट्रेशन व कंसिलिएशन एक्ट 4996 में ऐसे समझौतों को अधिकृत करने की भी व्यवस्था है। हिन्दु विवाह अधिनियम 4955 जैसे कुछ और अधिनियम भी समझौता कराने में न्यायधीश की भूमिका पर जोर देते हैं। इंडस्ट्रियल डिरप्यूट्स एक्ट 1947 य फैमिली कोट्स एक्ट 4984 भी अपेक्षा करते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया से पहले न्यायालय समझौता कराने की पूरी कोशिश करेगा। भारतीय न्यायतंत्र के उच्चतम अधिकरियों ने फैसला लिया है कि न्यायिक व्यवस्था के अंतर्गत मध्यस्थता का अधिकाधिक प्रयोग किया जाएगा ।

जी हॉ। कानून का उपयोग किसी भी पक्ष की सहीं-सहीं स्थिति का जायज़ा लेने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में कानून के वैधानिक और वास्तविक पहलुओं की सहायता लीं जाती है । ऐसा करने से मामले के गुण-दोष, सीमा व आशय इत्यादि आंके जा सकते हैं जिससे समझौता होने की संभावनाएँ बढ़ती हैं । भविष्य में भी यह समझौता बना रहे, इसके लिए उसका कानूनी तौर पर वैध. मान्य और पक्का होना ज़रूरी है । स्वाभाविक है कि ऐसा समझौता कराने वाला मध्यस्थ कानून जानने वाला हो।

मध्यस्थता की सफलता इस बात पर निर्भर है कि इस प्रक्रिया के ही अपने कुछ कायदे हैं। फिर, मध्यस्थ का अपना कौशल भी है । लेकिन सफलता का सबसे बडा करण वादियों की समझौता करने की अपनी इच्छा है । अगर कोई झगड़ा ख़त्म ही न करना चाहे तो अच्छे से अच्छा समाधान असफल हो जाता है । यदि सभी पक्ष मामले का निपटारा चाहते हैं तो मध्यस्थता ऐसा करने का शालीन और कारगर तरीका है ।

जी हाँ । जब सभी पक्षों के बीच समझौता हो जाता है और वे उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं, तब सिविल प्रक्रिया संहिता और आर्बिट्रेशन व कंसिलिएशन एक्ट के तहत यह समझौता कार्यान्वित जिया जा सकता है । वैधानिक कर्यान्वन और अवमानना की कानूनी प्रक्रिया द्वारा न्यायालय इस समझौते को लागूं करता है ।

साधारणतः दिल्ली उच्च न्यायालय की मध्यस्थता सेवाएँ वादी के लिए निःशुल्क हैं। लेकिन कुछ मामलों में न्यायालय यह आदेश भी दे सकता है कि मामले पर होने वाला खर्च सभी पक्ष बराबर बांटें ।

यदि आप न्यायिक प्रक्रिया के पहले ही मध्यस्थता का लाभ उठाना चाहते हैं, तो सीधे समाधान केन्द्र के समन्वयक के पास अपना नाम दर्ज कराएँ । अगर आप का मामला न्यायालय-निर्देशित है तो आप और आपके वकील को केन्द्र द्वारा दिया गया एक आवेदन पत्र भरना होगा । इसके बाद, आप समन्वयक के पास अपना लेखा-जोखा दर्ज करा कर केन्द्र की सेवाएँ ले सकते हैं ।